Saturday, December 6, 2025
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सतना पूर्व विधायक शंकरलाल के निधन पर जिले में शोक कि लहर

जननेता कभी भी बनाए नहीं जाते। वो माटी की धूल फांकते हुए, संघर्षों की भट्ठी में तपते-गलते हैं और समय के कपाल पर प्रहार कर— चमक उठते हैं। ऐसे ही थे तीन बार सतना के विधायक रहे शंकरलाल तिवारी। नई पीढ़ी में जो उनके ज्यादा निकट था‌। वो उन्हें आत्मीयता के साथ बाबू कहकर ही पुकारता था। क्योंकि लोग उन्हें अपने अभिवावक जैसा मानते थे।वो विधायक थे लेकिन उनमें इसका कभी घमंड नहीं था। वो अक्खड़ थे।फक्कड़ थे, बतक्कड़ थे। जनता के लिए किसी से भी लड़ जाते थे। नंगे पैर दौड़ जाते थे। क्योंकि वो अपने को जनता में ही पाते थे। सत्ता की हनक और सनक उन्हें कभी भी दिग्भ्रमित नहीं कर पाई।

 

यों उनकी राजनीतिक शुरुआत छात्र नेता के तौर पर हुई थी। लेकिन तेवर हमेशा योद्धाओं वाले रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के शुरुआती दौर से वे जुड़े रहे। वो वैसे भोले भी थे। लेकिन जनहित के लिए शंकर जैसे क्रोधी भी थे। जब सन् 1975 में लोकनायक जयप्रकाश के नेतृत्व में समग्र क्रांति का आंदोलन चल रहा था। उस समय वे छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के प्रांतीय सह संयोजक रहे। इसके चलते उन्हें तीन माह जेल में भी गुजारने पड़े। शिमला समझौते के विरोध में एक हफ्ते जेल में गुजारे। इंदिरा सरकार के क्रूर आपातकाल में मीसा के अंतर्गत आपातकाल की सजा भुगती। जननेता बनने के अलावा उनका एक किरदार पत्रकार वाला भी रहा है। शंकरलाल ने दैनिक वीर अर्जुन, दिल्ली और दैनिक युगधर्म, जबलपुर के ब्यूरो चीफ की भूमिका भी निभाई। ‘बेधड़क भारत’ समाचार पत्र का संपादन और प्रकाशन भी किया।

 

राजनीति में बगावत का भी खासा महत्व होता है। उन्होंने 2003 में बगावती तेवर अपनाया। भाजपा से अलग निर्दलीय मैदान में कूद गए। जब उन्होंने विधानसभा का चुनाव लड़ा तो उनके पास खोने को कुछ नहीं था। लेकिन पाने के लिए पूरा आसमान था। संभवतः उन्हें बरगद चुनाव चिन्ह आवंटित हुआ था। गांव-गांव में शंकरलाल प्रचार करते। हर आम आदमी उनमें अपने को विधायक की छवि देख रहा था। न भूख की चिंता और न प्यास की चिंता। आखिरकार उनके हिस्से जीत आई और वे सतना के निर्दलीय विधायक बन गए। फिर 2008 और 2013 में बीजेपी की टिकट से विधायक बने। लेकिन 2018 के चुनाव में शंकरलाल अकेले पड़ गए। उन्हें उनकी पार्टी के ही नेता नहीं पचा पाए और कुछ दरबारियों ने उन्हें अंधेरे में रखा। भीतरघात किया। परिणामत: अभिमन्यु की तरह सियासी चौसर में उन्हें घेर लिया गया। वो 2018 का चुनाव हारे तो फिर 2023 में बीजेपी ने उन्हें दोबारा टिकट नहीं दिया। इस प्रकार शंकरलाल तिवारी की राजनीतिक पारी की कथा समापन बेला की ओर चली आई। उनकी राजनीतिक पराजय के साथ ही उनके आसपास का कुनबा भी कम होता चला गया। जो कल तक बाबू..बाबू कहकर उनके आस-पास मंडराते रहते थे।वो धीरे-धीरे किनारा करने लगे। दूसरे गुटों में शामिल होकर उनकी बुराई करने लगे। शंकरलाल ने जिन्हें बनाया और जिनका वजूद ही उनकी विधायकी के चलते बना— वो घात करने में पीछे नहीं रहे। लेकिन शंकरलाल हंसी और ठहाकों के साथ सबकुछ भुलाते चले गए। क्योंकि उन्हें नेता माटी ने बनाया था। न कि चंद दरबारियों ने।

 

 

इसीलिए शंकरलाल फिर भी कभी घबराए नहीं। वो अपने ख़राब स्वास्थ्य के बावजूद भी ख़ूब सक्रिय थे। सामाजिक – सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उनकी खासी रुचि थी। सतना में विशाल कांवड़ यात्रा के पीछे उनकी ही दृष्टि थी। जो हर साल उत्तरोत्तर बढ़ती चली गई। हर व्यक्ति के सुख-दु:ख में शामिल होना। ‘और भाई..तैं ता मोहिं बिसर गए’..इस तरह के देसीपने के साथ वो लोगों के बीच घुले-मिले रहते। वो जब विधायक रहे तब भी और जब विधायक नहीं रहे तब भी। 

 

कोई कभी समझ ही नहीं पाया कि— उनमें विधायकी का रौब जैसा कुछ था। वो किसी की भी मोटरसाइकिल में सवार होकर कहीं भी पहुंच जाते थे। कभी रिक्शेवाले के साथ बैठ जाते थे। कभी जमीन और चबूतरे पर बैठ जाते। हर पीड़ित और गरीबों की वो हमेशा आवाज़ बने। जिनके साथ कोई खड़ा नहीं होता था। उनके साथ शंकरलाल खड़े होते थे।वो पूरी तरह से मौलिक थे। कोई दिखावा नहीं था। जो थे 24 कैरेट शुद्ध सोना। कोई लाग-लपेट नहीं। जिसको जो कहना है वो मुंह पर कह देते थे।

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