वेल्लोर के एक छोटे से घर में पटवारी पिता और शिक्षिका माँ के बीच पले-बढ़े डॉ. सतीश कुमार एस ने कभी दिखावा नहीं सीखा।
जो मिला, उसी में खुश रहना और जो जिम्मेदारी मिली, उसे पूरी ईमानदारी से निभाना – यही उनके जीवन का मूलमंत्र रहा।
MBBS डॉक्टर बने, फिर IAS बने, लेकिन सादगी कहीं नहीं छूटी।
सतना में जिलाधीश बनकर आने के बाद भी…
🚲 हर सुबह साइकिल पर कलेक्ट्रेट पहुँचते हैं – चाहे धूप हो या सर्दी
लोग हैरान रह जाते हैं – “सर, गाड़ी तो है आपके पास!”
वो मुस्कुराकर कहते हैं, “है ना, लेकिन साइकिल से जो सुकून मिलता है, वो लाल बत्ती में कहाँ?”
सरकारी बंगला है, पर फालतू फर्नीचर और एसी की होड़ नहीं।
दफ्तर में चाय भी सादा, बिस्किट भी साधारण – 5-सितारा प्रोटोकॉल से कोसों दूर।
मीटिंग में भी कुर्सी पर पूरा ताम-झाम नहीं – बस सीधे काम की बात।
जनसुनवाई में लोग आते हैं, घबराते नहीं – क्योंकि सामने बैठा अफसर खुद इतना सादा है कि लगता है अपना ही कोई बड़ा भाई बैठा हो।
एक बार एक गरीब महिला अपने बच्चे के इलाज के लिए मदद माँगने आई।
पैसे नहीं थे, आवेदन भी अधूरा था।
डॉ. साहब ने तुरंत फोन उठाया, अस्पताल से बात की और खुद की जेब से कुछ राशि देकर कहा –
“ये सरकारी मदद बाद में आएगी, अभी बच्चे का इलाज पहले।”
महिला रोते-रोते पैर छूने लगी, तो बोले – “बहन, मैं भी एक माँ-बाप का बेटा हूँ, यही संस्कार हैं मेरे।”
सादगी सिर्फ़ कपड़ों या सवारी में नहीं, सोच में है उनकी।
जब पूरा सिस्टम प्रोटोकॉल और पावर की चकाचौंध में खोया रहता है, तब कोई IAS साइकिल चलाकर यह बता रहा है कि
“असली ताकत पद में नहीं, इंसानियत में होती है।”
सतना वालों को नाज है कि हमें ऐसा कलेक्टर मिला
जो लाल बत्ती की गाड़ी में नहीं,बल्कि सादगी की साइकिल पर सवार होकर हमारे दिलों पर राज कर रहा है।



